शायद प्रेमीयां देवदास के नाम नहीं जानते होंगे। लेकिन दिल टूटनेवालों को देवदास का नाम जरूर पता होता है। जिनका दिल टुटा है वो सभी देवदास ही है। देवदास की प्रेम कहानी सबके दिल को छुआ है। लेकिन यह सच्ची प्रेम कहानी नहीं है। यह एक काल्पनिक प्रेम कहानी है जो 1900 में शरत चंद्र चटर्जी द्वारा बंगाली में लिखी गई है। देवदास की प्रेम कहानी आमतौर पर सबको पता है। क्योंकि यह 19 विभिन्न भाषाओं के फिल्म स्क्रीन पर आया है। देवदास की प्रेम कहानी ऐसी है।
देवदास का जन्म कलकत्ता के निकट ताळशोनपुर गाँव में एक धनी बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। उसकी सहेली ही पार्वती है। सब उसे प्यार से पारु कहके बुलाते थे। वो देवदास के सामनेवाले घर की लड़की थी। देवदास एक अमीर बंगाली ब्राह्मण परिवार का लड़का था। लेकिन उसकी बचपन की सहेली पारु एक मिड्ल क्लास व्यापारी घर की प्यारी बेटी थी। जाति व्यवस्था की सीमा के परे उनकी दोस्ती बढ़ी थी। दोनों के परिवारों के बीच अंतरंगता थी। देवदास की माँ पारु को बहुत पसंद करती थी। पारु अपना अधिकांश समय देवदास के साथ उसके घर में बिताती थी। देवदास उसके साथ मौज मस्ती करके उसे चिढ़ाता था। इस प्रकार बचपन में ही देवदास और पारु के बीच एक अटूट बंधन विकसित हुआ।
देवदास और पारु एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहते थे। लेकिन संदर्भ ने उन्हें अलग कर दिया। देवदास अपने पिता के आग्रह पर शिक्षा प्राप्त करने के लिए कलकत्ता गया। वह पढ़ाई के लिए 13 साल तक वहीं रहा। पारु देवदास के लिए हर पल प्रतीक्षा करती थी। उसकी यादों में अपने हर सांस लेती थी। वो भी उसे पत्रों के माध्यम से याद करता था। दोनों शारीरिक रूप से दूर हुए थे। फिर भी वे मानसिक रूप से बहुत करीब आ गए। जब 13 साल के बाद, देवदास अपना पढ़ाई पूरा करके गाँव लौटा, तो वह पूरी तरह से बदल गया था। बचपन में बेवकूफ की तरह बर्ताव करनेवाला लड़का अब एक शिक्षित इंसान बना था। उसी तरह पारु भी बहुत बदल गई थी।
कई साल बाद, देवदास अपनी बचपन की सहेली पारु को देखने के बाद आश्चर्य चकित हो गया। क्योंकि बचपन की सहेली पारु अब बहुत बदल चुकी थी। बचपन में बिना कोई शर्म, संकोच और वापसी से उसके साथ खेलनेवाली शरारती लड़की अब बड़ी होकर एक सुंदर युवती बनी थी। उसकी सुंदरता को देखने के बाद देवदास खुद पर यकीन नहीं कर पा रहा था। दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया। उन्होंने एकांत में एक-दूसरे के कुशलक्षेम पूछा। अब उन्हें एहसास हुआ कि “अब हम सिर्फ दोस्त नहीं हैं, हम युवा प्रेमी हैं…”। अपनी बचपन की दोस्ती प्यार में बदलने पर पारु बहुत खुश थी। ऐसा महसूस कर रही थी कि मैं दुनिया जित चुकी हूँ। इसी प्रकार देवदास खुशी में तैरने लगा कि एक अपूर्व सुंदर लड़की मेरी साथी बन गई।
जैसे-जैसे दिन बीतते गए देवदास और पारु का प्यार सारे हद पार करके आगे बढ़ा। बचपन के तरह, वह अभी भी देवदास के साथ अधिक समय बिताने लगी। वह देवदास के आँखों में अपने प्यार को देखकर पूरी दुनिया भूल जाती थी। उसके साथ बहस करते, झगड़ते उसके घर में पूरा दिन बिताती थी। देवदास पारु की खूबसूरत चेहरा और मुस्कान को देखकर कल्पना लोक में डूब जाता था। उसकी गोद में लेटकर उसकी प्यारी बातों को सुनते सो जाता था। उन दोनों के घर आमने सामने थे। इसलिए वे दोनों आसानी से एक दूसरे को मिलते थे। इस प्रकार दोनों का प्यार ख़ुशी से आगे चला।
देवदास और पारु का प्यार बिना किसी की डर और रुकावट से रहस्य रूप से आगे बढ़ा। लेकिन उनका प्यार पारु के माँ को पता चला। उसकी माँ ने उसके प्यार को प्रोत्साहित किया। क्योंकि वे शुरू से जानते थे कि उनकी बेटी देवदास से प्यार करती है। इसीलिए उन्होंने पारु के प्रेम को प्रोत्साहित किया। जल्द ही उन्होंने देवदास और पारु की शादी करने के बारे में सोचा और दादी बनके पोते-पोतियों को पालने का सपना देखा। पारु की माँ ने अपनी बेटी को बंगाली परंपरा के अनुसार बहू के रूप अपनाने के लिए देवदास की मां हरिमति से कहा। उनकी शादी की उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि देवदास और पारु बचपन से एक दूसरे को जानते है और प्यार करते है। लेकिन देवदास की मां ने पारु को अपने घर की बहू के रूप अपनाने के लिए संकोच किया। प्रतिष्ठा, संपत्ति और जात में निचे होनेवाले व्यापारियों के घर से बहू लाना देवदास के मां को बिलकुल भी पसंद नहीं था। इसीलिए उन्होंने पारु के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसके अलावा, उन्होंने पारु को “नीच जाति की औलाद, व्यापारी वंशज और चरित्रहीन लड़की” कहके अपमान किया। देवदास के पिता नारायण मुखर्जी ने पारु के माँ को यह कहते हुए अपमान किया कि “हमारी प्रतिष्ठा के बराबर आप हमें दहेज देने के लायक नहीं हैं…”। पारु की माँ ने देवदास के घर से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं की थी। अपमान से हुए गुस्से में, पारु के पिता नीलकंठ चक्रवर्ती ने पारु के लिए एक अच्छे अमीर दूल्हे को चुने और उसकी शादी की तैयारी शुरू कर दी।
जल्दबाजी में हो रहे अपनी शादी की तैयारियों को देखकर पारु गबरा गई। वह देवदास के अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहती थी। उसके पास देवदास को छोड़कर खुश रहने की ताकत नहीं थी। इसलिए उसने हिम्मत की और आधी रात को 2 बजे चुपके से देवदास से मिली। उसने उससे कहा कि वह उससे बेहद प्यार करती है और उसके बिना नहीं रह सकती है। लेकिन देवदास चुप था। क्योंकि, उसे अपने घरवालों के साथ बात करके अपने शादी के लिए इजाज़त लेने की हिम्मत नहीं थी। पारु के घर से कोई एतराज़ नहीं थे। लेकिन, देवदास के घरवाले उनके प्रेम को तीव्र विरोध कर रहे थे। अपने परिवार के खिलाफ जाके पारु से शादी करने की हिम्मत देवदास के सीने में नहीं थी। पारु उसके साथ भाग जाके शादी करने के लिए भी तैयार थी। लेकिन वह डरपोक था। उसने उसे सांत्वना दी और उसको उसके घर भेज दिया। अगले दिन, अपनी शादी के लिए अपने पिता को मनाने के लिए उसने बहुत प्रयास किया और हार गया। उसके घरवालों को अपने बेटे की ख़ुशी से ज्यादा जाति और हैसियत महत्त्वपूर्ण हुआ था।
अपने घरवालों को मनाने में असफल होने के बाद, देवदास ने पारु को अपना मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं की। उसे अपना मुँह दिखाने की हिम्मत देवदास में नहीं थी। इसलिए वह उसे बिना कुछ बताए रातोरात कलकत्ता को भाग गया। दो दिनों के बाद उसने उसे खत में इस तरह लिखा कि “हमारे घरवाले हमारी शादी को किसी भी कारण से अनुमति नहीं देंगे। इसलिए हम हमारे प्रेम को भूलकर सिर्फ दोस्त बनकर रहेंगे”। उसके इस खत पढ़ने के बाद पारु कंगाल हो गई। “जिस देवदास से मैं मेरे जान से अधिक प्यार करती हूँ, क्या वह इतना कायर है?”, ऐसे सोचकर वह बहुत बुरा महसूस करने लगी। इसी दर्द में, उसने अपने पिता के द्वारा दिखाए हुए लड़के से शादी करने के लिए मौन सहमति जताई। लेकिन उसका मन देवदास के लिए तरस रहा था। उसकी शादी की सभी तैयारियाँ तेजी से हो रहे थे। दूसरी ओर, कायर देवदास को देर से ज्ञ्यानोदय हुआ। अगर अब मैं चुप रहता हूँ तो हमेशा के लिए मैं पारु को खो देता हूँ, इस डर ने रातोरात उसे उसके गांव को खिंच के ले आया।
पारु की शादी के एक दिन पहले देवदास उसे अकेले में मिला और कहा कि “अब मैं हमारे प्रेम को बचाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ। हम दोनों यहां से भाग जाके शादी करेंगे”। लेकिन पारु उसकी बातों को सहमति नहीं दी। कायर देवदास को फिर से चाहकर अपने माता-पिता के सम्मान को नीलाम करने की बुरी इच्छा अब उसमें नहीं आई। उसने देवदास की लापरवाही और कायरता के लिए उसे फटकार लगाई और उसके साथ भाग जाने से इंकार कर दी। देवदास ने शादी के लिए राजी होने को पारु से बहुत विनती किया। लेकिन अब पारु का दिल पत्थर बन चूका था।
हजार बार विनती करने के बावजूद भी पारु ने देवदास से शादी करने के लिए नहीं मानी। उसका निर्णय सही था। क्योंकि वह अच्छी तरह जानती थी कि घर के सामने बारात आने पर बिना कुछ बताए भाग जाने वाले लड़के के साथ भाग जाना ठीक नहीं है। “मरने से पहले मेरे घर को एक बार आ और मुझे देख”, पारु ने देवदास को इस तरह कहा और उसे बातों में मारकर भगा दिया। देवदास की कायरता और उसके घरवालों के अपमान के कारण, पारु ने दूसरे लड़के से शादी की और पति के साथ गांव छोड़के गई। उसके यादों में मरते और घरवालों के साथ झगड़ते देवदास भी गांव छोड़के कलकत्ता को चला गया।
देवदास के ऊपर की गुस्से के कारण, अपने घरवालों ने दिखाया हुआ लड़के से शादी करके पारु ने बड़ी गलती की और बहुत पछताने लगी। क्योंकि उसके पति भुवन चौधरी पहले से ही शादीशुदा था और उसे तीन बच्चे भी थे। उम्र में अपने से बारह साल बड़ा होने वाले बूढ़े पति के साथ बिस्तर साझा करने के लिए पारु तैयार थी। लेकिन वह अपनी पहली पत्नी की यादों में नास्तिक हो गया था, जिसकी मृत्यु हो गई थी। उसे पारू की सुंदरता में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे अपनी बच्चों की देखभाल करने के लिए सिर्फ एक माँ चाहिए थी, न की उसे एक पत्नी। इसलिए, पारु को केवल अपनी पति के बच्चों की माँ बनके रहना पड़ा। उसका पति खेतीबाड़ी करते हुए उससे बहुत दूर ही रहता था। पारू अपने पूर्व प्रेमी देवदास के यादों में नरक यातना भुगतने लगी। दमनकारी यौवन की इच्छाओं के साथ देवदास की यादों के उत्पीड़न से वह हर पल रोने लगी। वह प्रेम वैराग्य को मारने के लिए पति की बाँहों की सहारा चाहती थी। लेकिन, जब उसे अपने पति से भी वैराग्य ही मिला तो वह अंदर से टूट गई। उसकी सुंदरता, उसके पति की संपत्ति की तरह अनुपयोगी हो गई। वह देवदास को नहीं भूल पाई और मन की शांति के लिए पूजा पाठ में अपने आप को व्यस्त रखने लगी।
अनचाहे शादी करके पारू आँसू में हाथ धो रही थी। दूसरी ओर, कलकत्ता में देवदास अपनी कायरता से पारू को खोने के लिए खुद को कोसने लगा था। अपने मन की रानी को दूसरे पुरुष के हाथों में हवाले करने पर देवदास को बहुत पछताव हो रहा था। अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद भी देवदास पारू के यादों से बहार आने में असमर्थ रहा। पारू के यादों से दूर भागने के लिए देवदास ने शराब पीना शुरू कर दिया। शराब के साथ-साथ उसने सिगरेट सुंदरी को अपने होंठों से चिपकाया। इतना सब करने के बावजूद भी उसकी प्रेम वेदना खत्म नहीं हुई। वह अपने मित्र चुन्नीलाल के कारण चंद्रमुखी नाम के एक वेश्या के पल्लू में फंस गया। वह अत्यधिक शराब पिने लगा, अनगिनत सिगरेट जलाने लगा और चंद्रमुखी की कोठरी में सड़ने लगा। वह चंद्रमुखी में अपने पारू को देखने लगा।
देवदास चंद्रमुखी में अपनी पारू की कल्पना करता था और उसे प्यार की बाते बताता था। इससे आकर्षित होकर चंद्रमुखी देवदास से प्यार करने लगी। उसके मन से पारू को निकालकर वह उसके मन में बैठने की कोशिश की। लेकिन, उसके मन में सिर्फ पारू के लिए जगह थी। उसने उसकी बुरे आदत को छुड़वाने की कोशिश की। लेकिन, कोई फायदा नहीं हुआ। पारू की यादों में, देवदास ने अनगिनत शराब पिया और उसकी सेहत पूरी तरह बिगड़ गई। जब उसे यकीन हो गया कि वह ज्यादा दिन जीवित नहीं रहेगा, तो उसे पारू को दिया हुआ वचन याद आ गया। दिए हुए वादे के अनुसार, देवदास आखरी बार पारू को देखने के लिए उसके गांव गया। लेकिन वह उसे देख नहीं पाया और उसके घर के सामने ही उसकी मौत हो गई। उसकी मौत की खबर सुनकर पारू उसे देखने के लिए भागते आ रही थी। लेकिन उसके घरवालों ने उसे रोका। उसने बहुत माँग किया, लेकिन उसके घरवालों ने उसे देवदास को देखने की अनुमति नहीं दी। पागलों की तरह प्यार करके देवदास पारू के घर के सामने मर गया। अपने प्रेमी की चेहरा देखे बिना पारू जिंदा लाश की तरह रहकर दुःख से मर गई।
भले ही देवदास की प्रेम कहानी काल्पनिक क्यों न हो, लेकिन यह दिल टूटने वाले प्रेमियों के लिए एक सांत्वन हो गया है। अपने प्रेयसी को खोनेवाला कायर देवदास के लिए बुरा महसूस करना चाहिए या परिस्थिति के जाल में फँसकर नास्तिक के सामने आत्मसमर्पण करनेवाली पारू के लिए बुरा महसूस करना चाहिए, यह समझ में नहीं आता है। यह देवदास की प्रेम कहानी है। इस प्रेम कहानी को अपने पूर्व-प्रेमी के साथ साझा करें और इस पर टिप्पणी करें…
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